इंसानियत के खिलाफ इंसान की लड़ाई है अवतार-2

“भरत कीन्ह यह उचित उपाऊ। रिपु रिन रंच न राखब काउ।।” अर्थात ‘भरत ने यह उचित ही उपाय किया। शत्रु और ऋण को जरा भी शेष नहीं रखना चाहिए। नहीं तो वह बढ़ता ही जाता है।’ लक्ष्मण को यह संदेह तब हुआ था जब भरत अपनी चतुरंगिणी सेना को लेकर राम से मिलने, उन्हें वापस बुलाने वन की ओर जा रहे थे। लक्ष्मण को लगता है कि भरत अयोध्या को निष्कंटक बनाने के उद्देश्य से उनकी तरफ आ रहे हैं। स्वयं राम भी थोड़े समय के लिए विचलित हुए थे और कहा था- “बहुरि सोचबस भे सियरवनू।कारन कवन भरत आगमनू” अर्थात ‘क्या कारण है कि सेनाओं को लेकर भरत जंगल की ओर आ रहे हैं?’ राजनीति विज्ञान का मनोविज्ञान ही यही है कि शत्रु को कभी जीवित नहीं छोड़ना चाहिए। वरना अवसर पाकर वह पलटवार जरूर करता है।

‘अवतार: द वे ऑफ वाटर’ की शुरुआत इसी समस्या से होती है। ‘अवतार’ में यह लड़ाई जहाँ पर खत्म हुई थी, इसकी शुरुआत वहीं से होती है। पहले भाग में जंगलवासियों ने आकासवासियों पर विजय हासिल की थी और कैदियों को वापस उसके अपने मुल्क भेज दिया था। इस फिल्म में वापस आए वही पराजित कैदी अपनी पूरी ताकत के साथ, पहले से भी भयंकर हथियार लेकर फिर से जंगल पर हमला करते हैं। जिंदा छोड़ दिए गए शत्रु ने फिर से वापसी की और पेंडोरा जंगल को तबाह कर दिया। पूरे जंगल में आग लगा दी। इस दृश्य को देखने के बाद ऐसा लग रहा था कि इसी आग से बचने के लिए जंगलवासी जल में शरण लेंगे और वहीं से अपना संघर्ष जारी रखते हुए शत्रुओं पर पुनः विजय प्राप्त करेंगे। ऐसा होता तो शायद कहानी में और रोचकता आती। पर ऐसा नहीं हुआ। लेकिन जो हुआ वह भी हमें आकर्षित करता है। हमें कभी बोरियत महसूस नहीं होता। बाँधे रखता है। फिल्म का सेकेंड हाफ थोड़ा स्लो जरूर है, पर जल और जलचर दृश्यों को देखकर मन उसी समुद्र में गोते लगाने लगता है।

          अवतार-2 की कहानी मानव संघर्ष के इतिहास को बयान करती है। श्रेष्ठ जाति आर्य ने अपने अत्याधुनिक हथियार के बल पर जिस प्रकार मूल निवासियों को नष्ट कर उसकी जमीन पर कब्जा किया, वैसी ही कहानी इस फिल्म की है। जमीन खत्म हो रही है, नए ठिकाने के लिए आदमी जंगल की ओर पलायन कर रहे हैं। इसके लिए वह जंगल के जीवों को नष्ट कर देना चाहते हैं। जंगलवासी अपनी जीवन रक्षा के लिए इसके खिलाफ बगावत करता है जिसे इंसान बागी कहता है। इस तरह की उपाधियाँ पहले भी संघर्षशील लोगों को दी जाती रही है। जिसने भी साम्राज्यवादी, विसतारवादी ताकतों के खिलाफ संघर्ष किया उसे उन्होंने राक्षस, काफिर, उग्रवादी कहा। आज उसे ही माओवादी, अर्बन नक्सल, खालिस्तानी या पाकिस्तानी कहा जाता है। जंगल का नायक जेक सली (सैम वर्थिंगटन) और उसकी पत्नी नायिका नेतिरी (जोई साल्डाना) आदमी की निगाह में बागी हैं। क्योंकि दोनों डटकर आदमियों का मुकाबला करते हैं। लेकिन इस बार वे बहुत सतर्क, सावधान और चिंतित हैं। क्योंकि इस बार वे सिर्फ दो नहीं हैं। उसका पूरा परिवार है। दो बेटे हैं। दो बेटियाँ हैं जिसमें से एक को उसने गोद लिया है। उसके साथ एक इंसानी लड़का भी है जो नावी परिवार (जंगलवासी का परिवार) के साथ रहकर ही पला-बढ़ा है और उसी के साथ रहना चाहता है। इसलिए नायक युद्ध नहीं चाहता। युद्ध इंसानियत के खिलाफ है। जीवन के खिलाफ है। जंगलवासी इस बात को समझ रहा है, लेकिन आकासवासी आदमी को यह बात समझ में नहीं आती। इस फ़िल्म में बड़ी खूबसूरती के साथ यह बताया गया है कि जिसे हम जंगली समझते हैं असल में वही संवेदनशील इंसान है और जिसे हम सभ्य समाज कहते हैं वह महा धूर्त, विश्वासघाती, दंभी और जंगली जानवर है। जंगलवासियों में इंसानियत है और आकासवासियों में हैवानियत। निजी स्वार्थ के लिए वह प्रकृति का दोहन करना चाहता है। यह इंसान का जंगलियों से नहीं बल्कि जंगलियों का इंसान से जंग की कहानी है। इंसानियत के खिलाफ इंसान के लड़ाई की कहानी है।

          इन दिनों हिंदी में भी कुछ ऐसी फिल्में बनी हैं जिसमें जंगल को बचाने की जद्दोजहद दिखाई गई है। इसमें ‘भेड़िया’ और ‘कांतारा’ का नाम शामिल हैं। दोनों ही फिल्मों में जंगल को बचाने के लिए आदमी को अपनी आदमियत त्यागकर कल्पना और अंधविश्वास का सहारा लेना पड़ता है। एक ने चौपाया भेड़िया बनकर दोपाया इंसानी जानवरों का शिकार किया तो दूसरे ने अपने कुल देवता की सहायता से उसका मुकाबला किया। दोनों ही फिल्में विशुद्ध रूप से अंधविश्वास पर आधारित है। मानव समाज की जटिलताएँ उसे विश्वसनीय बनाती हैं। अमानवीयता इस कदर हावी है कि व्यक्ति हर हाल में आतताईयों का विनाश चाहता है, भले ही वह अंधविश्वास के ही जरिए क्यों न हो। आदमी में जब लड़ने की क्षमता समाप्त हो जाती है तब अंधविश्वास का जन्म होता है। इसका सीधा-सीधा मतलब यही है कि जानवरों से लड़ने के लिए इंसान को जानवर बनना पड़ता है। मुझे ‘लोन रेंजर’ फिल्म का एक संवाद याद आ रहा है। उसमें जॉन डीप के सह कलाकर के भाई की जब हत्या हो जाती है तब वह दुःखी होकर अपने चेहरे का मास्क उतारकर फेंक देता है। जॉन डीप उसे मास्क पहनने को देता है और कहता है- “एक दिन ऐसा आएगा जब हर अच्छे आदमी को नकाब पहनना पड़ेगा।” आप हमारे स्वतंत्रता सेनानी लेखकों को पढ़िए, अधिकांश लेखकों ने छद्म नाम से अंग्रेजों के खिलाफ लिखा। छद्म नाम से लिखना मुखौटा लगाने जैसा ही है। बुराई से लड़ने के लिए वहाँ मुखौटा लगाना पड़ा, नाम बदलना पड़ा,  यहाँ ‘भेड़िया’ और ‘दूत-भूत’ बनकर उसका सामना करना पड़ा। ‘अवतार-2’ आदमियों द्वारा जंगल को हड़प लेने के षड्यंत्र से ही संघर्ष करती है।

          यह बात अब निरर्थक साबित हो रही है कि इंसान से ज्यादा समझदार इस धरती पर कोई दूसरा प्राणी नहीं है। उसकी हरकतों से यही पता चल रहा है कि वह सबसे बड़ा धूर्त और स्वार्थी है। छली और कपटी है। इंसान अब इंसान नहीं रहे। उसमें पशु वृत्ती आ गई है। वह जब बल से नहीं जीत पाता तो छल से काम लेता है। ‘अवतार-2’ में उसने इस छल का प्रयोग किया है। उसने जंगलियों को मारने के लिए उन्हीं के जैसे जंगली लोगों को तैयार किया है ताकि वे आसानी से उसके साथ घुल-मिलकर उसके प्रत्येक ठिकानों पता लगा सके। कर्नल माइल्स (फिल्म का मुख्य खलनायक) ‘अवतार’ में मर गया था। लेकिन ‘अवतार-2’ में उसकी यादों और उसके डीएनए से उसका नया वर्जन तैयार किया जाता है जो बिलकुल जंगलवासियों की तरह ही दिखता है। उसमें नहीं है तो सिर्फ संवेदना। सबके सब खूँखार और हत्यारे हैं। उसमें और मूल जंगलवासियों में वही फर्क है जो आदमी और रोबोट में होता है। उसकी पूरी टुकड़ी खूनी अवतार में हैं जिसका एकमात्र उद्देश्य है जेक सली (नायक) और उसके परिवार को नष्ट करना ताकि आसानी से पूरे जंगल पर कब्जा किया जा सके। यह पूरी प्रक्रिया ठीक वैसी ही है जैसे आर्यों ने कुछ द्रविड़ों की सहायता से शेष द्रविड़ों का दमन किया था, राम ने सुग्रीव की सहायता से बाली को और विभीषण की सहायता से रावण का वध किया। अंग्रेजों ने भी तथाकथित भारतीयों की सहायता से ही भारतीयों पर लम्बे समय तक राज किया। इंसानों द्वारा निर्मित ये जंगली जंगल में आकर तबाही मचाते हैं। उसकी इसी विनाशकारी हरकतों से जंगलवासी को पता चल जाता है कि वे पेंडोरा जंगल के निवासी नहीं है बल्कि जंगल को बर्बाद करने वाले आदमियों द्वारा भेजे गए शैतान हैं जो जीवन को नष्ट कर रहे हैं। अचानक उसकी चपेट में नायक के बच्चे आ जाते हैं। फिल्म का असल संघर्ष यहीं से शुरू होता है। नायक-नायिका अपने बच्चों को बचाने में तो सफल हो जाते हैं लेकिन इंसानी बच्चे को वह शैतान उठाकर ले जाता है। वह किसका बेटा है, यह किसी को नहीं पता। वह नायक के परिवार के साथ जंगल में पला-बढ़ा है। उसे जंगल का कोना-कोना पता है। इसलिए नायक को चिंता होती है कि कहीं उस लड़के ने खलनायक को सब कुछ बता दिया तो वह पूरे जंगल को बर्बाद कर देगा, जंगल का सम्पूर्ण जीवन नष्ट कर देगा। इसलिए वह अपने कबीले के दूसरे व्यक्ति को जंगल का राजा बनाकर परिवार सहित एक द्वीप पर जलवासी के पास शरण लेने चला जाता है। परिस्थितियों से समझौता कर नायक अपने परिवार को सुरक्षित रखने के उद्देश्य से जंगल से पलायन करता है और ऐसे द्वीप पर पहुँचता है जहां की प्रजाति जलीय जीव जैसे हैं। वे समुद्र में तैरना, गहरे उतरना जानते हैं। जलीय जीवों से उसका पारिवारिक संबंध है। समुद्र की सबसे बड़ी मछली उसका पारिवारिक रिश्तेदार है। नायक का परिवार जलवासी के यहाँ शरण लेता है और वहाँ का तौर-तरीके सीखता है, जलजीवों की सवारी करना सीखता है और थोड़े-बहुत आपसी रंजिशों के बाद एक-दूसरे के साथ घुलमिल जाता है। यह प्राकृति सामंजस्य की कथा के साथ-साथ मनुष्य द्वारा प्रकृति के विनाश की भी कथा है। जंगलवासी जलवासी के साथ सामंजस्य स्थापित करने में सफल होता है लेकिन मनुष्य जंगलवासी के साथ ऐसा करने में नाकाम है। इसका एकमात्र कारण इंसान का स्वार्थ और भूमि विस्तार की मंशा है। उसे पता है कि खनिज और जीवन वर्धक पदार्थ धरती और जल के किस-किस कोने में है। वह सब हड़प लेना चाहता है। यह पदार्थ भूभाग पर ही नहीं, जलीय जीवों में भी पाया जाता है। इसके लिए वह जलरानी ह्वेल का शिकार करते हैं और उसके मस्तिष्क से द्रव्य पदार्थ निकालते हैं ताकि उसके सेवन से अमर हुआ जा सके, लंबी उम्र पायी जा सके। इंसान को इस द्रव्य के बारे में पता है लेकिन स्वयं जलीय जीवों को इसके बारे में पता नहीं होता। ठीक ‘कस्तुरी कुंडल बसे’ जैसा ही। यही पदार्थ हासिल करने का प्रयास पहले भी हुआ था जिसमें ह्वेल परिवार के कई सदस्यों की मृत्यु हो गई थी। लेकिन जलवासी को लगता है कि इस हिंसा की जिम्मेदार ह्वेल है। उसी की हिंसात्मक प्रवृत्ति के कारण ऐसा हुआ है। इसलिए जलवासियों ने उसे बेदखल कर दिया है। वह निर्वासन की जिंदगी बिताती है। तभी उसकी भेंट नायक के छोटे बेटे से होती है और दोनों में गहरी मित्रता हो जाती है। दो विभिन्न प्रजातियों की यह मित्रता दर्शाती है कि प्रेम की भाषा सृष्टि के प्रत्येक जीवों को समझ में आती है, सिवाय मनुष्य के। भिन्न प्रकृति का यह मेल अलग ही लोक का सृजन है। उस ह्वेल की जिंदगी ‘तेजाब’ फिल्म के नायक अनिल कपूर जैसी है जिसे बिना किसी अपराध के तड़ीपार का जीवन जीने को अभिशप्त होना पड़ता है।

          नायक का जंगल से पलायन करने का विचार उसकी पत्नी सहित किसी भी जंगलवासी को उचित नहीं लगता है। पर नायक नहीं चाहता कि उसकी वजह से उसका पूरा जंगल परिवार खत्म हो जाए। अपनी आन के कारण वह जंगल को नष्ट नहीं करना चाहता। अलाउद्दीन खिलजी की कट्टरता पर अमीर खुसरो ने कहा था-

मुल्के-दिल कर दी खराज़ तीरे-नाज़।

ब-दरीं वीरान सुलतान हनोज॥

अर्थात, “तूने हृदय की देश को अपनी नाज़ की तलवार से (अपने अहंकार के कारण) उजाड़ डाला। बर्बाद कर दिया। अब इस वीराने में सुल्तान बनकर बैठा है।” जंगल के नायक को ऐसा सुल्तान नहीं बनना है। उसे राजा बनने से ज्यादा चिंता अपनी प्रजा की जिंदगी की है, अपने परिवार की है। यह बात परिवार वाले जंगली जीव समझ सकता है, बेऔलाद बेपरिवार इंसानों के पास अभी ऐसी समझ का विकसित होना बाकी है। परिवार की चिंता नायक को पलायन करने पर मजबूर करता है। जैसे ‘जानवर’ फिल्म में अक्षय कुमार गुमनामी की जिंदगी जीने को मजबूर होते हैं और बाबू लोहार बनकर अपना गुजारा करते हैं। ‘अवतार-2’ का नायक ठीक वैसे ही जलवासी का जीवन जीने को मजबूर है। लेकिन शत्रु यहाँ भी उसका पीछा नहीं छोड़ता। जब उसके बच्चे पर संकट आता है तब मजबूरन उसे युद्ध करने के लिए तैयार होना पड़ता है। वह जलवासियों के साथ मिलकर शत्रुओं का सामना करता है। इस संघर्ष में नायक का बड़ा लड़का मारा जाता। यहाँ मुझे हॉलीवुड की ही एक और फिल्म ‘Patriot’ (2000) की याद आ रही है। उसका नायक भी पारिवारिक चिंता के कारण ही युद्ध त्यागकर एक साधारण किसान का जीवन व्यतीत करता है। लेकिन जब उसके सामने ही उसके बेटे को गोली मार दी जाती है तब मजबूरन उसे हथियार उठाना पड़ता है। ‘जानवर’ के बाबू लोहार को भी इसी कारण अंत में जानवर बनना पड़ता है। अकासवासी, जंगलवासी और जलवासी के बीच की इस भयंकर लड़ाई में बहुत-से जलीय जीव भी मारे जाते हैं। तब नायक को यह अहसास होता है कि पलायन करने के बाद भी जीवन कहीं सुरक्षित नहीं है। इसलिए पलायन कर कहीं और घर बनाकर नहीं बसा जा सकता। जंगल ही उसका घर है और वहीं रहकर उसे शत्रुओं से लड़ना चाहिए। वह ऐसा इसलिए भी सोचता है कि इस लड़ाई में उसने नाहक ही जलजीवों को झोंक दिया। यह उसकी अपनी लड़ाई थी। मारे गए निर्दोष जलजीव भी। उसे अपने बेटे की मौत का दुःख तो है ही, वह जलजीवों की मौत से भी परेशान है। खुद को इसका जिम्मेदार मानता है। इसलिए जंगल लौटकर रहने का मन बनाता है। यहीं पर यह फिल्म संकेत करती है कि इसका अगला पार्ट भी बनेगा। क्योंकि फिल्म का मुख्य शत्रु अभी जिंदा है।

           यह फिल्म परिवार के महत्व को दर्शाती है। माता-पिता अपने बच्चों की रक्षा करने के लिए कुछ भी कर सकते हैं। पूरी फिल्म माता-पिता द्वारा अपने बच्चों की की जाने वाली सुरक्षा पर आधारित है। नायक का छोटा बेटा बहुत शरारती है। वह अक्सर संकट पैदा करता है। लेकिन बड़ा भाई और पिता सदैव उसकी रक्षा करते हैं। वह पिता और बड़े भाई के प्यार को नहीं समझता। उसे लगता है कि पिता बड़े बेटे से ज्यादा प्यार करते हैं, उससे कम। उसके मन का यही हीन भाव उसे बार-बार गलत करने को उकसाता है। उसी की मूर्खता के कारण बड़े भाई की जान चली जाती है। जब बच्चे खलनायक की कैद में होते हैं तब नायक अपनी पत्नी से कहता है- “चलो, अपने बच्चों को (बेटियों को) घर ले आते हैं।” यह संवाद सिहरन पैदा करता है। उसका एक और संवाद लम्बे समय तक कानों में गूँजता रहेगा- “पिता रक्षा करता है। यही धर्म है एक अच्छे पिता का।” पिता का मतलब पिलर है, ताकत है, घर की छत है। माँ यदि बच्चों की छाती होती हैं तो पिता उसकी पीठ हैं। पूरी फिल्म माता-पिता का अपने बच्चों के प्रति समर्पण की करुण कथा है।

            पिछले साल हॉलीवुड की ‘DOM’ नामक वेबसीरीज आई थी। उस वेबसीरीज के नायक का बेटा ड्रग्स की चपेट में आ जाता है। बहुत सारी समस्याओं में उलझता है। लेकिन पिता हर स्थिति में उसकी रक्षा करते हैं। पिता का अपनी संतान के प्रति वैसा समर्पण विरल है। संतान जैसी भी हो, माता-पिता का प्यार उसके प्रति कभी कम नहीं होता। अभी हाल में हमने देखा कि जब शाहरुख खान के बड़े बेटे को ड्रग्स मामले में करीब एक माह तक पिता से दूर रखा गया तब शाहरुख खान ने वह सबकुछ किया जो एक पिता को करना चाहिए था। एक भी रात उन्होंने चैन से नहीं सोया होगा। इस दर्द, पीड़ा और प्यार को उसे भी महसूस करना चाहिए जिसका अपना कोई परिवार नहीं है। यह फिल्म प्रेम, परिवार और इमोशन्स को ऐसे दिखाती है जैसे वह हमारे परिवार की कहानी हो। अपना परिवार बसाने के लिए हमें दूसरों का परिवार नष्ट नहीं करना चाहिए। यही इस फिल्म का मुख्य उद्देश्य है। शायद मनुष्य जाति को यह बात समझ में आ जाए। क्योंकि हिंसा, युद्ध से किसी का कल्याण नहीं हो सकता। “हिंसा कितनी भी जायज क्यों न हो, हिंसा को ही जन्म देती है।”

रमेश ठाकुर

असिस्टेंट प्रोफेसर

हिन्दू कॉलेज, दिल्ली विश्वविद्यालय

मो. 8448971626

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